Friday, October 29, 2010

मेरे गुरूजन तुम्हे शत्-शत् मेरा नमन

कोई कहता है कि वह ज्योति है,
सागर की सीप का मोती है,
पर मैं कहती हूं शिक्षक भी इनसान है,
भू पर रहकर भी महान है,
राह दिखाता है उन नादानों को
विद्यार्थी जिनकी पहचान है।
             बचपन की छोटी-छोटी अठखेलियां करते हुए जब एक शिशु पाठशाला की दहलीज पर अपना प्रथम कदम रखता है तो उसकी उंगली पकड़कर पहला अक्षर सीखाने से लेकर उसकी व्यक्तिगत पहचान बनने तक, एक नाम जो उसके जहन में बस जाता है, जिसका दर्जा शास्त्रों के अनुसार मां बाप से भी पहले आता है, वो होता है गुरू का। यंू तो हर किसी के जीवन में कोई न कोई व्यक्ति गुरू बनकर आता है कुछ के लिए ये गुरू शब्द उनकी जिंदगी बदल जाता है तो कुछ शायद इसे समझ नहीं पाते। एक किस्सा मेरे जीवन का, मेरी एक गुरूजन से जुड़ा जिसने जिंदगी के मायने कुछ इस तरह बदले, की जीने की राह ही बदल गई।
          विद्यालय के समय में मुझे वाद विवाद के लिए मेधावी छात्रा की फेहरिस्त में प्रथम स्थान प्राप्त था। विद्यालय में आए दिन भाषण व वाद-विवाद प्रतियोगिता का आयोजन किया जाता था। बहुत बार निमंत्रण अन्य विद्यालयों से भी आता था। हर बार भाषण प्रतियोगिता के लिए विद्यालय का प्रतिनिधित्व करने का आनंद ही ओर था। एक बार वाद-विवाद की राज्यस्तरीय प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए विद्यालय में पत्र आया। हर बार की तरह अमूमन प्रतिनिधित्व करने के लिए मैं मन में अपना नाम सोचकर प्रतियोगिता की तैयारी में जुट गई। लेकिन आश्चर्य और दुःख की घड़ी मेरे लिए वो थी जब मेरी सबसे प्रिय शिक्षिका ने मेरी बजाए एक ऐसी छात्रा का नाम अनुमोदित किया जो वाक्-अभिव्यक्ति के मामले में बहुत साधारण गुणों वाली थी। शंकाओं से भरा मन और उदास चेहरा लिए, मैं अपनी प्रिय शिक्षिका के पास पहंुच गई। मन में प्रश्न बहुत थे लेकिन पूछने की हिम्मत नहीं, और हो भी कैसे, जिसने मुझे बोलना सिखाया, प्रतियोगिता के गुर सिखायंे, मुझे आगे बढ़ने की राह दिखाई, उनके नकारात्मक रवैये से मन उद्वेलित था, पर फिर भी उन पर विश्वास की गहराई समुद्र से भी ज्यादा गहरी थी शायद यही कारण था जो उन्होंने मेरी चुपी की जुबान को भी आंखो से पढ़ लिया। मेरे बिना कुछ कहे मुझे अपने पास बुलाया और हमेशा की तरह स्नेह स्पर्श से मेरा अभिवादन किया। उनका स्नेह भरा स्पर्श मेरे लिए सदैव कुछ कर गुजरने की औचक औषधि का कार्य करता था। हमेशा की तरह उनके स्नेह के स्पर्श का अहसास तो वही था पर शायद मैं उसे महसूस नहीं कर पा रही थी। उस दिन मेरी पीठ थपथपाते हुए जो शब्द उन्होंने मुझे कहे उन शब्दों में उनका स्नेह, सीख, समर्पण सबकुछ समाया था, जिसने मेरी उदासी को छूमंतर कर दिया। उन्होंने कहा,‘‘मेरी बच्ची, तुम्हारी क्षमताओं पर मुझे किसी भी प्रकार का संदेह नहीं, तुम केवल राज्यस्तरीय नहीं बल्कि राष्ट्रीय व अंर्तराष्ट्रीय स्तर पर पुरस्कार लाओगी तो वो मेरे लिए कोइ आश्चर्य नहीं होगा लेकिन तुम्हारे इस त्याग से तुम्हारी एक बहन का आत्मविश्वास इतना बढ़ सकता है जिससे वो भी जीवन में तुम्हारी तरह बहुत आगे तक जा सकेगी।‘‘ मैं उन्हें एकटक देखती रही, मेरी आंखे नम हो गई, और मैं उस पल को याद करने लगी जब एक बार मुझे भी उन्होंने इसी तरह से मौका दिया था। मेरा सोया आत्मविश्वास जगााया था। अब मन में न दुख था, न नाराजगी, अगर कुछ था तो वो थी खुशी और अपनी अध्यापिका के लिए बेइंताह इज्जत। खुशी इस बात की थी कि मैं भी शायद किसी के आत्मविश्वास बढ़ाने में भागीदार बन सकूंगी। सोच रही थी कि कितनी महान है ये अध्यापिका, जो निःस्वार्थ भाव से दूसरों के बच्चों को आगे बढ़ाने के लिए सदा प्रयासरत रहती है। मां-बाप जीवन भर बच्चों के साथ रहते हैं, उन्हें हर खुशी देते हैं, पर कम से कम उन्हें ये आस तो होती है कि बच्चे बदले में, उन्हें समय आने पर वो खुशियां लौटाएंगे पर गुरू तो किसी बात की इच्छा भी नहीं रखते। उनका काम तो सिर्फ और सिर्फ देना हैं। मेरी शिक्षिका ने मेरा आत्मविश्वास बढ़ाया। मेरी जैसी कितनी ही और लड़कियों का भी। वो आज भी अपने इस कार्य में जुटी है, जाने-अनजाने में कितनी जिंदगियां संवार रही है, इसका उन्हें स्वयं भी अंदाजा नहीं। आज उनकी और उनके दिए ज्ञान की बदौलत मैं खुद एक शिक्षिका के पद पर कार्यरत हूं पर शायद उन जैसी अध्यापिका आज भी नहीं। अपने गुरूजनों के लिए, मन की भावना को इन्हीं पंक्तियों में समेटूंगी कि-
‘गुरूजन हमारे, हम गुरूजनों के,
आपके हमारे रिश्ते हैं प्यारेे,
प्यार से हमें आजमां लेना,
अर्पण कर देंगे खुद को चरणों में तुम्हारे।

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